भारतीय फुटबॉल की दुनिया में एक नाम है, जो आजकल हर जुबां पर है—**खालिद जमील**। मुंबई की गलियों से निकलकर भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के मुख्य कोच बनने तक का उनका सफर न सिर्फ प्रेरणादायक है, बल्कि इसकी हर परत में संघर्ष, जुनून और सपनों की कहानी छुपी है।
खालिद का जन्म 21 अप्रैल 1977 को कुवैत सिटी में भारतीय पंजाबी माता-पिता के यहां हुआ था। बचपन में ही उन्होंने फुटबॉल से दोस्ती कर ली। 14 साल की उम्र में वह एक ऐसे कैंप में पहुंचे जहां फ्रांस के दिग्गज कोच मिशेल प्लाटिनी से मुलाकात हुई। यही वो क्षण था, जिसने उनके दिलो-दिमाग पर खेल के जुनून की अमिट छाप छोड़ दी। प्लाटिनी तब से ही उनके आदर्श बन गए। बाद में जब उनका परिवार भारत आया, तो मशहूर क्लब ईस्ट बंगाल और मोहन बागान से पेशकश मिली, मगर उन्होंने उसे ठुकरा दिया क्योंकि वे क्लब शराब कंपनी से प्रायोजित थे।
एक खिलाड़ी के रूप में खालिद का सफर भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं था। महिंद्रा यूनाइटेड, एयर इंडिया और मुंबई के लिए खेलना, 40 से भी ज्यादा बार भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व करना, और फिर चोटों के चलते अचानक संन्यास लेना। लेकिन असली ‘कमबैक’ तो इसके बाद शुरू हुआ—फुटबॉल कोच बनने का सफर।
कोचिंग करियर की शुरुआत मुंबई एफसी से हुई। उसके बाद उन्होंने मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, आइजॉल, नॉर्थईस्ट यूनाइटेड और हाल ही में जमशेदपुर जैसे प्रमुख क्लबों को कोचिंग दी। खालिद ने साबित किया कि भारतीय कोच भी विदेशी कोचों जितने प्रभावशाली हो सकते हैं। 2016-17 में उन्होंने आइजॉल एफसी के साथ आइ-लीग का खिताब जीतकर पूरे देश को चौंका दिया। यह कारनामा इसलिए भी यादगार रहा क्योंकि उन्होंने देश की सबसे बड़ी टीमों को हराते हुए यह जीत हासिल की।
खालिद जमील भारतीय फुटबॉल के इतिहास में **पहले भारतीय कोच** हैं जिन्हें इंडियन सुपर लीग क्लब का स्थायी मुख्य कोच नियुक्त किया गया था। नॉर्थईस्ट यूनाइटेड को 2020-21 और जमशेदपुर एफसी को 2024-25 में उनकी कप्तानी में प्ले-ऑफ तक पहुंचने का मौका मिला—एक ऐसी उपलब्धि जो काफी वक्त तक भारतीय कोचों के लिए सपना ही थी।
अभी हाल ही में, एक अगस्त 2025 को खालिद जमील को भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल टीम का मुख्य कोच नियुक्त किया गया है[1][3]। 13 वर्षों बाद यह पहली बार हुआ है जब किसी भारतीय को यह जिम्मेदारी मिली है। हालांकि, उनका कार्यकाल अभी अंतिम रूप से निर्धारित नहीं हुआ है—यह टीम के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा, जो आगे दो या तीन साल तक सकता है[3]।
खालिद के लिए यह जिम्मेदारी सिर्फ एक पद नहीं, बल्कि सपनों को हकीकत में बदलने का मौका है। उनके सामने कई चुनौतियां हैं—टीम का प्रदर्शन सुधारना, युवा प्रतिभाओं को पहचानना और एकजुटता की भावना लाना। उन्होंने खुद कहा था कि वे कभी कोच बनना ही नहीं चाहते थे, लेकिन नियति ने उन्हें इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां आज वह देश के खेल इतिहास को नई दिशा देने की तैयारी में हैं[4]।
निष्कर्ष:
खालिद जमील की कहानी युवा खिलाड़ियों और कोचों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने दिखा दिया कि मेहनत और ईमानदारी से सपनों को जीता जा सकता है। आज पूरे भारत की नजरें खालिद और उनकी टीम पर हैं। क्या वह भारतीय फुटबॉल को नई ऊंचाइयों तक ले जाएंगे? आने वाला वक्त इस सवाल का जवाब देगा, लेकिन एक बात तय है—खालिद जमील ने खुद को और हिंदुस्तान को यह यकीन दिला दिया है कि सपनों की राह कभी भी बंद नहीं होती।