भारतीय राजनीति के सामाजिक ताने-बाने में पितृ आधारित प्रथा का असर या कहें कि एक पुरानी परंपरा गहराई तक बैठी हुई है। देश के आम घरों की तरह, राजनीति में भी पिता का वारिस अक्सर बेटा ही बनता है। इक्का-दुक्का परिवारों में ही बेटियां अपने पिता की राजनीतिक उत्तराधिकारी बन पाती हैं, और वह भी तब, जब परिवार में कोई भाई मौजूद न हो। हालिया उदाहरण के. कविता का है, जिन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता देखना पड़ा, जब उन्होंने विद्रोह करने की कोशिश की।
राजनीतिक घरानों की बेटियों पर बेटे भारी
तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने अपनी बेटी के. कविता को भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) से बाहर कर दिया। परिवार के भीतरूनी कलह के बीच केसीआर के इस फैसले ने उनके बेटे के.टी. रामाराव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया। यह कोई पहली बार नहीं है, जब राजनीतिक विरासत से बेटियों को बेदखल होना पड़ा है। कई राजनीतिक घरानों की बेटियां पार्टी के भीतर वर्चस्व की लड़ाई में अपने भाइयों से पीछे ही रही हैं। पिताओं और माताओं ने, जिन्होंने अपने कंधों पर पार्टी की जिम्मेदारी संभाली, उन्होंने बेटियों के बजाय बेटों पर अधिक भरोसा दिखाया।
मीसा भारती, प्रियंका गांधी और कोनिमोझी भी इस सूची में शामिल हैं। हालांकि, सुप्रिया सुले, अनुप्रिया पटेल, श्रुति चौधरी और आरती राव को अपवाद माना जा सकता है, लेकिन इन बेटियों का परिवार के भीतर मुकाबले के लिए कोई सगा भाई नहीं था, जिसने उनके लिए रास्ता आसान किया।
कविता से पहले शर्मिला भी छोड़ चुकी हैं पार्टी
दक्षिण भारतीय राजनीतिक परिवारों में के. कविता दूसरी ऐसी महिला राजनेता हैं, जिन्हें पिता की विरासत की जंग हारनी पड़ी है। इससे पहले, आंध्र प्रदेश में वाई. एस. शर्मिला भी अपने पिता वाई. एस. राजशेखर रेड्डी का उत्तराधिकारी नहीं बन सकीं और उन्हें कांग्रेस में शामिल होना पड़ा। जगन मोहन रेड्डी अपने पिता की विरासत के निर्विवाद उत्तराधिकारी बन गए। महाराष्ट्र में शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को एनसीपी का उत्तराधिकारी बनाया, लेकिन इस घरेलू विवाद के बाद परिवार में फूट पड़ी और भतीजे अजित पवार ने बगावत कर दी।
मीसा से 13 साल छोटे तेजस्वी बने लालू के वारिस
उत्तर भारत के राजनीतिक परिवारों में भाई-बहन में वर्चस्व की लड़ाई खुलकर भले ही सामने न आई हो, लेकिन धीमे स्वर में दावा करने वाली बहनों को सांसद, विधायक या पार्टी में पद से संतोष करना पड़ा है। मीसा भारती और कोनिमोझी सांसद हैं, मगर उन्होंने कभी पार्टी के सर्वोच्च पद के लिए सीधे तौर पर मुंह नहीं खोला। शिक्षा, राजनीतिक अनुभव और उम्र, तीनों लिहाज से मीसा भारती ज्यादा योग्य मानी जाती हैं, मगर लालू यादव ने वारिस के तौर पर तेजस्वी यादव को चुना। तेजस्वी अपनी बड़ी बहन मीसा भारती से करीब 13-14 साल छोटे हैं। इसी तरह, नॉर्थ-ईस्ट के मेघालय में पी ए संगमा के बेटे कॉनराड संगमा और बेटी अगाथा राजनीति में सक्रिय हैं। नेशनल पीपुल्स पार्टी और सीएम पद की जिम्मेदारी कॉनराड संगमा ने संभाल रखी है, जबकि अगाथा तुरा लोकसभा क्षेत्र की सांसद हैं।
राहुल गांधी का कद बढ़ने तक नहीं लड़ीं प्रियंका गांधी चुनाव
प्रियंका गांधी भी खुले तौर से नहीं, मगर वह भी इस पैतृक वारिसनामे का शिकार रही हैं। वह शुरू से ही अपनी मां सोनिया गांधी के साथ स्टार प्रचारक रहीं। राजीव गांधी के निधन के सात साल बाद, 1995 में जब पहली बार सोनिया गांधी अमेठी के मंच पर पहुंची थीं, तब प्रियंका उनके साथ थीं। मगर उन्होंने 30 साल बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में वायनाड से चुनावी एंट्री की। पिछले दो दशकों में जब-जब कांग्रेस में परिवर्तन का माहौल बना, तब-तब प्रियंका गांधी के नए रोल के कयास लगते रहे। उनमें इंदिरा गांधी की छवि तलाशी जाती रही। इस तीन दशक में राहुल गांधी 2004 में अमेठी से लगातार सांसद चुने जाते रहे। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के दौरान पार्टी ने उनका कद बढ़ाने की कोशिश की। वह कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी बने और अब पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार बता रही है।
अब ‘प्रियंका लाओ, देश बचाओ’ का नारा बेअसर
प्रियंका उस समय राजनीति में लाई गईं, जब पार्टी के नेता और कार्यकर्ता के दिमाग में यह फिट हो गया कि सोनिया गांधी के बाद अब राहुल गांधी ही कांग्रेस के निर्विवाद सर्वेसर्वा हैं। लोगों के बीच प्रियंका गांधी वाड्रा का नाम रच-बस गया है। अब ‘प्रियंका लाओ, देश बचाओ’ का नारा देने वाले पार्टी के नेताओं के पास राहुल गांधी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अब प्रियंका गांधी का कांग्रेस में वही रोल रहेगा, जो राष्ट्रीय जनता दल में मीसा भारती का और डीएमके में कोनिमोझी का। गांधी परिवार का ब्रैंड ‘गांधी’ राहुल ही हैं।
पॉलिटिकल फैमिली में भाइयों के बीच होता है विवाद
राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि क्षेत्रीय दल चूंकि परिवार पर आधारित रहे हैं, इसलिए उत्तराधिकार का विवाद इन पार्टियों में ज्यादा होता है। मगर सामाजिक ताने-बाने के कारण, यह विवाद भाई-बहन से ज्यादा भाई-भाई के बीच होता है। हरियाणा की देवीलाल, बंसीलाल, भजनलाल की फैमिली हो या बिहार के लालू यादव की राजनीतिक विरासत का झगड़ा, यह भाइयों के बीच ही रहा है। ऐसे विवाद से बचने के लिए क्षेत्रीय दलों के मुखिया ने अपनी जिंदगी में ही वारिस चुना है। देवीलाल ने अपने चार बेटों में से ओम प्रकाश चौटाला को गद्दी सौंपी। बंसीलाल के दोनों बेटे सुरेंद्र सिंह और रणबीर सिंह राजनीति में आए। भजनलाल ने छोटे बेटे कुलदीप बिश्नोई पर दांव लगाया, हालांकि बड़े बेटे चंद्रमोहन भी राजनीति में सक्रिय थे। लालू यादव ने डिप्टी सीएम की कुर्सी तेजस्वी यादव को सौंपकर इस विवाद पर लगाम लगाने की कोशिश की।
दक्षिण भारत में भी बेटे का मोह कम नहीं
दक्षिण भारत में करुणानिधि के बेटों के बीच विरासत को लेकर विवाद हुआ, मगर उन्होंने पहले ही स्टालिन को बड़ी जिम्मेदारी देकर वारिस चुन लिया। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने सीएम पद की शपथ लेकर मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक विरासत को संभाला। उनके भाई प्रतीक यादव रेस में शामिल ही नहीं हो सके। कर्नाटक में येदियुरप्पा के दो बेटे हैं, बी. वाई विजयेंद्र और बी. वाई. राघवेंद्र। उत्तराधिकारी के तौर पर विजयेंद्र ही देखे जा रहे हैं। मध्य प्रदेश के सिंधिया परिवार की यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे राजनीति में सक्रिय हैं। इसके बाद भी परिवार की राजनीतिक विरासत माधवराव सिंधिया, ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद महाआर्यमन सिंधिया में तलाशी जा रही है। यह प्रवृत्ति भारतीय राजनीति में गहरी जड़ें जमाए हुए है, जहां बेटियों को अक्सर राजनीतिक मंच पर पीछे धकेल दिया जाता है, भले ही वे योग्य क्यों न हों।