भारत के सामाजिक ताने-बाने में पितृसत्तात्मक व्यवस्था का गहरा असर देखने को मिलता है। यह प्रथा न केवल आम घरों में बल्कि देश की राजनीति में भी अपनी जड़ें जमाए हुए है। अक्सर देखा जाता है कि राजनीतिक घरानों में पिता की विरासत संभालने का जिम्मा बेटे को ही मिलता है। बेटियां तभी राजनीतिक उत्तराधिकारी बन पाती हैं, जब परिवार में कोई बेटा न हो। यह एक ऐसा चलन है जो कई दशकों से भारतीय राजनीति में बना हुआ है, जहाँ बेटियाँ अक्सर अपने सगे भाइयों से पिछड़ जाती हैं।
जब बेटियां हुईं दरकिनार, भाई बने वारिस
तेलंगाना की राजनीति में हालिया घटनाक्रम इसका एक ताजा उदाहरण है। पूर्व मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता को भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) से निष्कासित कर दिया गया। परिवार के अंदरूनी कलह के बीच इस फैसले ने के. टी. रामाराव को उनके पिता का राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया। यह पहली बार नहीं है जब राजनीतिक विरासत की दौड़ में बेटियों को पीछे छोड़ दिया गया हो। कई बड़े राजनीतिक घरानों की बेटियों को पार्टी के भीतर वर्चस्व की लड़ाई में भाइयों से कमतर आंका गया। खुद पार्टी की नींव रखने वाले पिताओं और माताओं ने भी बेटियों के बजाय बेटों पर अधिक भरोसा दिखाया।
दक्षिण भारतीय राजनीति में के. कविता से पहले आंध्र प्रदेश में वाई. एस. शर्मिला भी ऐसी ही स्थिति का सामना कर चुकी हैं। वह अपने पिता वाई. एस. राजशेखर रेड्डी की विरासत नहीं संभाल सकीं और उन्हें कांग्रेस में शामिल होना पड़ा, जबकि उनके भाई जगन मोहन रेड्डी अपने पिता के निर्विवाद उत्तराधिकारी बन गए।
उत्तर भारत में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है। बिहार में लालू यादव ने अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती के बजाय छोटे बेटे तेजस्वी यादव को अपना राजनीतिक वारिस चुना। शिक्षा, राजनीतिक अनुभव और उम्र तीनों ही लिहाज से मीसा भारती भले ही अधिक योग्य मानी जाती हों, लेकिन तेजस्वी को प्राथमिकता दी गई, जो उनसे लगभग 13-14 साल छोटे हैं। इसी तरह, नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) में पी. ए. संगमा के बेटे कॉनराड संगमा ने मुख्यमंत्री पद और पार्टी की कमान संभाली, जबकि उनकी बेटी अगाथा संगमा तुरा लोकसभा क्षेत्र की सांसद हैं।
प्रियंका गांधी का राजनीतिक सफर और विरासत
कांग्रेस पार्टी में प्रियंका गांधी भी इस पैतृक वारिसनामे का शिकार रही हैं। अपनी मां सोनिया गांधी के साथ वह शुरू से ही स्टार प्रचारक रहीं, लेकिन उन्होंने सक्रिय राजनीति में 2024 के लोकसभा चुनाव में वायनाड से चुनावी एंट्री ली। पिछले दो दशकों में जब भी कांग्रेस में बदलाव की बात उठी, प्रियंका गांधी के नए रोल के कयास लगते रहे और उनमें इंदिरा गांधी की छवि भी देखी गई। हालांकि, इस तीन दशक में राहुल गांधी लगातार अमेठी से सांसद चुने जाते रहे और उन्हें पार्टी में प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया गया। प्रियंका की भूमिका अब कांग्रेस में वैसी ही दिखती है, जैसी राष्ट्रीय जनता दल में मीसा भारती या डीएमके में कोनिमोझी की है। गांधी परिवार का ‘गांधी’ ब्रांड अब राहुल ही हैं।
अपवाद: जब भाई नहीं तो बहन ने संभाली कमान
हालांकि, कुछ अपवाद भी देखने को मिलते हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को एनसीपी का उत्तराधिकारी बनाया। हालांकि इस निर्णय के बाद भतीजे अजित पवार ने बगावत कर दी, लेकिन सुप्रिया को यह अवसर मिला क्योंकि उनके पास सीधा कोई सगा भाई मुकाबले में नहीं था। इसी तरह अनुप्रिया पटेल, श्रुति चौधरी और आरती राव जैसे उदाहरण भी मिलते हैं, जिन्होंने अपने परिवारों की राजनीतिक विरासत संभाली है, अक्सर इसलिए क्योंकि परिवार में उनका कोई सगा भाई सीधा प्रतिद्वंद्वी नहीं था। यह दर्शाता है कि पुरुष उत्तराधिकारी की अनुपस्थिति में ही महिलाओं को शीर्ष भूमिका मिलती है।
पितृसत्तात्मक सोच और उत्तराधिकार का विवाद
विशेषज्ञ मानते हैं कि क्षेत्रीय दल, जो अक्सर परिवार-आधारित होते हैं, उनमें उत्तराधिकार का विवाद अधिक होता है। हालांकि, सामाजिक ताने-बाने के कारण यह विवाद भाई-बहन के बीच कम और भाई-भाई के बीच ज्यादा मुखर होता है। इसका कारण साफ है – बेटे को ही परिवार का ‘वारिस’ मानने की पुरानी परंपरा। इस तरह के विवाद से बचने के लिए कई क्षेत्रीय दलों के प्रमुखों ने अपने जीवनकाल में ही अपने वारिस का चुनाव कर लिया।
उदाहरण के लिए, हरियाणा में देवीलाल ने अपने चार बेटों में से ओम प्रकाश चौटाला को गद्दी सौंपी। बंसीलाल के दोनों बेटे, सुरेंद्र सिंह और रणबीर सिंह, राजनीति में आए। भजनलाल ने बड़े बेटे चंद्रमोहन के बजाय छोटे बेटे कुलदीप बिश्नोई पर दांव लगाया। दक्षिण भारत में करुणानिधि के बेटों के बीच विरासत को लेकर विवाद हुआ, लेकिन उन्होंने पहले ही स्टालिन को बड़ी जिम्मेदारी देकर वारिस चुन लिया। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत संभाली, जहाँ उनके भाई प्रतीक यादव दौड़ में शामिल ही नहीं हो सके। कर्नाटक में येदियुरप्पा के दो बेटों, बी. वाई. विजयेंद्र और बी. वाई. राघवेंद्र में से विजयेंद्र को उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा है। मध्यप्रदेश के सिंधिया परिवार में यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे सक्रिय राजनीति में हैं, इसके बावजूद परिवार की राजनीतिक विरासत माधवराव सिंधिया, ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद महाआर्यमन सिंधिया में तलाशी जा रही है।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर, भारतीय राजनीति में पितृसत्तात्मक सोच और परिवारवाद का गहरा प्रभाव है। बेटियां राजनीति में सक्रिय भले हों, लेकिन शीर्ष नेतृत्व और उत्तराधिकार की दौड़ में अक्सर बेटों को ही प्राथमिकता दी जाती है। यह एक ऐसी जमीनी हकीकत है जो आज भी देश के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी है, जहाँ महिलाओं की योग्यता और अनुभव के बावजूद, उन्हें विरासत की जंग में पीछे धकेल दिया जाता है।