लंबे समय तक विवादों और चर्चाओं का केंद्र बनी रहने के बाद, निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘द बंगाल फाइल्स’ आखिरकार सिनेमाघरों में दस्तक दे चुकी है। यह फिल्म अग्निहोत्री की ‘फाइल्स ट्रिलॉजी’ की तीसरी और अंतिम कड़ी है, जो ‘द ताशकंद फाइल्स’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद आई है। ‘द बंगाल फाइल्स’ दर्शकों को वर्तमान के साथ-साथ 1946-47 के उस अशांत बंगाल में ले जाती है, जब कलकत्ता नरसंहार, डायरेक्ट एक्शन डे और नोआखली दंगे जैसी खौफनाक घटनाएं इतिहास के पन्नों में दर्ज हुईं थीं।
‘द बंगाल फाइल्स’ की कहानी
फिल्म की कहानी दो समानांतर टाइमलाइन में आगे बढ़ती है। पहली टाइमलाइन वर्तमान समय की है, जहां सीबीआई अफसर शिवा पंडित (दर्शन कुमार) को बंगाल में एक दलित लड़की सीता की गुमशुदगी की जांच करने के लिए भेजा जाता है। अपनी पड़ताल के दौरान, शिवा की मुलाकात मां भारती (पल्लवी जोशी) से होती है, जो अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष कर चुकी हैं और 1946 के डायरेक्ट एक्शन डे की प्रत्यक्षदर्शी भी हैं।
दूसरी टाइमलाइन हमें 1946 के अशांत बंगाल में ले जाती है, जहां युवा भारती बनर्जी (सिमरत कौर रंधावा) अपने साथी अमरजीत अरोड़ा (एकलव्य सूद) के साथ नोआखली दंगों और खूंखार आतंकवादी सरवर हुसैनी (नमाशी चक्रवर्ती) की बर्बरता का सामना करती है। इस भीषण हिंसा में, वह अपने जस्टिस पिता (प्रियांशु चटर्जी), अपनी मां और अपने प्रेमी अमरजीत, सभी को खो देती है। अतीत की यह दुखद कहानी, मां भारती की यादों के माध्यम से शिवा को वर्तमान मामले की गुत्थी सुलझाने में मदद करती है। अंततः, सभी सुराग अल्पसंख्यक विधायक सरदार हुसैनी (सास्वता चटर्जी) की ओर इशारा करते हैं, जो आज के बंगाल में सत्ता, डर और दोहरे चरित्र का प्रतीक है।
निर्देशन और पटकथा
निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने कलकत्ता के उस भयावह और दर्दनाक दौर की बर्बरता को पर्दे पर उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्म में धार्मिक उन्माद, हिंसा और नरसंहार के दृश्य इतने तीखे और विचलित करने वाले हैं कि दर्शक असहज महसूस कर सकते हैं। हालांकि, कुछ दृश्यों में इस विभत्सता को थोड़ा संयमित किया जा सकता था।
अग्निहोत्री दावा करते हैं कि फिल्म गहन शोध और दस्तावेजीकरण पर आधारित है, लेकिन इसके बावजूद इसका निष्पादन कहीं न कहीं इसकी अत्यधिक लंबाई के कारण कमजोर पड़ जाता है। लगभग 3 घंटे 24 मिनट का लंबा रनटाइम दर्शकों की सहनशक्ति की कड़ी परीक्षा लेता है। कहानी अपनी तीव्रता खोने लगती है और दो अलग-अलग टाइमलाइन के बीच अचानक बदलाव अक्सर दर्शकों के लिए भ्रम की स्थिति पैदा करता है।
तकनीकी पक्ष और संगीत
फिल्म के तकनीकी पक्ष की बात करें तो ग्राफिक्स प्रभावी हैं, लेकिन एडिटिंग और संवादों पर और अधिक मेहनत की आवश्यकता थी। हालांकि, बैकग्राउंड म्यूजिक विषय के साथ न्याय करता है और फिल्म के माहौल को गहरा करता है। खासकर रोहित शर्मा का संगीत ‘किचुदिन मोने मोने’ बेहद दर्दनाक और मार्मिक है, जो फिल्म के भावनात्मक प्रभाव को और भी अधिक बढ़ा देता है।
दमदार अभिनय
अभिनय के मोर्चे पर, सभी कलाकारों ने अपने-अपने किरदारों को पूरी ईमानदारी से निभाया है। मां भारती के कृशकाय, जर्जर और शॉर्ट-टर्म मेमोरी लॉस से जूझती वृद्धा के रूप में पल्लवी जोशी का प्रदर्शन उनके शानदार अभिनय और सटीक प्रॉस्थेटिक मेकअप की बदौलत बेहद प्रभावशाली है। दर्शन कुमार (शिवा) ने भी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। दूसरी ओर, हताश शराबी और गूंगे के किरदार में मिथुन चक्रवर्ती अपनी गहरी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं।
युवा भारती बनर्जी के रूप में सिमरत कौर रंधावा का अभिनय और लुक दर्शकों को पसंद आता है, हालांकि उस दौर के हिसाब से उनके कुछ डायलॉग्स (जैसे ‘आपको कुछ फील होता’) थोड़े अटपटे लगते हैं। एकलव्य सूद (अमर) कुछ दृश्यों में जरूरत से ज्यादा मुखर हो जाते हैं, लेकिन नमाशी चक्रवर्ती (सरवर हुसैनी) अपने खूंखार आतंकवादी किरदार को पूरे स्क्रीन पर दमदार तरीके से बनाए रखते हैं। अनुपम खेर ने महात्मा गांधी की भूमिका को सहजता से निभाया है। सपोर्टिंग कास्ट में मदालसा शर्मा, दिव्येंदु भट्टाचार्य, प्रियांशु चटर्जी, पुनीत इस्सर, अनुपा अरोड़ा, मोहन कपूर और सौरव दास ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में संतोषजनक काम किया है और फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में मदद की है।
निष्कर्ष
‘द बंगाल फाइल्स’ एक ऐसी फिल्म है जो एक संवेदनशील और दर्दनाक विषय को छूती है। विवेक अग्निहोत्री ने बंगाल के उस काले अध्याय को दिखाने की हिम्मत की है, लेकिन फिल्म की अत्यधिक लंबाई और कुछ तकनीकी कमजोरियां इसके प्रभाव को कम कर देती हैं। अगर आप इतिहास और संवेदनशील विषयों पर आधारित फिल्में देखना पसंद करते हैं, तो एक बार इसे देख सकते हैं, लेकिन लंबी अवधि के लिए धैर्य रखना होगा। हमारी तरफ से इस फिल्म को 2.5/5 स्टार्स दिए जाते हैं।